प्रेम में, सुधबुध बिसराना

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प्रेम में, सुधबुध बिसराना
तुम क्या जानो, ओ निर्मोही?
दर्द, बिछहो को हिय में बसाना
तुम क्या जानो, ओ निर्मोही?
आतुर नैनो की भाषा को,
अनमिट प्रेम की परिभाषा को
बिन बोले ही पढ़ पाना
तुम क्या जानो, ओ निर्मोही?
इस एकांक में तुम क्यों आओ?
तुम अपनों संग जी भर मुस्काओ,
बंद कमरों में आंसू बहाना,
तुम क्या जानो, ओ निर्मोही?
क्यों रात भर दिया अकुलाये,
क्यों  पतंगा फिर फिर आये?
क्या है आग, क्या जल जाना,
तुम क्या जानो, ओ निर्मोही?

भूले से कभी

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भूले से कभी
तू भी मुझसे,
इज़हार ऐ मोहब्बत कर, 
हर्ज़ा क्या है?
गर खौफ हैं तुझको भी,
तन्जों से तानों से,
तो तू बता तेरा
ओहदा क्या है?
छिपाया अब तक,
इस रिश्ते में,
तुने, मैंने, जाने क्या क्या?
वक़्त ऐ इम्तेहा पर भी
हम दोनों में, जाने ये,
पर्दा क्या है?

दर्द, दवा औ दुआ
में अब फर्क नहीं
करता हैं वो,
बेखुदी की हदों से बढ़ना,
यही नहीं तो,
"नुक्ता", क्या है?

टूटे टूटे ख़्वाबों में कुछ प्यार सा रहता हैं

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नींद से अब अक्सर ही मनुहार सा रहता है
टूटे टूटे ख़्वाबों में कुछ प्यार सा रहता हैं

कब से क़ैद है सीने में एक दिवाना सा लफ्ज़
लबों को छु लेने को बेकरार सा रहता हैं

जेहनो दिल ने उम्मीद  छोड़ दी, बरसो हुए
ना जाने रूह में कैसा इंतज़ार सा रहता है

"उससे" सुलह  की तरकीबें सब नाकाम ही रही
मेरा है औ' मुझसे लड़ने तैयार सा रहता है

सवाले वस्ल भी पूछ लेगा "नुक्ता" अगर
उसकी जुबान पे  इकरार सा रहता हैं

तेरी रूह में डूबी शराब

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इक तो तेरी नरम हथेली,
और उस पे ये हिना नायाब
क्यों न महके जेहनो दिल?
क्यों न महके ज़मी आसमान?

इक तो बयान वस्ल का,
ऊपर से किस्सा ए अजाब,
कैसे न थरथराये हाथ?
कैसे न लडखडाये ज़ुबान?

इक तो तेरे लबों के प्याले,
और तेरी रूह में डूबी शराब
क्या होगा अंजाम ए रिंद?
क्या होगा अंजाम ए जहान? 

अब शर्म करो "नुक्ता"

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लफ़्ज़ों की मासूमियत ने,
अब के तेज कर आँखों को,
कहा, "अब शर्म करो "नुक्ता"
कब तलक अपनी चालाकियों के
विष बाण हम में बुझाओगे?
कब तलक अपने सिने के अजाब,
नकाबों में छिपाओगे?
अपनी सोच, अपने ख्यालों पर,
सोने के मुलामें चढ़वाओगे?"
लफ़्ज़ों की मासूमियत ने,
अब के तेज कर आँखों को,
कहा, "अब शर्म करो "नुक्ता"!!!"

कान्हो मो से छुट गयो

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खोला खाली बच गया,
उड़ गयी रे तीतरी, संतो

दर दर ढूंढे कैसी खुशबु,
कहाँ छिपी रे कस्तूरी, संतो

प्यासे नैना, अजब बावरे,
भरभर छरकाए रे घघरी, संतो

कान्हो मो से छुट गयो,
कोन बजाये रे बांसुरी, संतो

ठीक हूँ

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अपने बेकल नयनों
के सवाल,
सिर्फ इस वास्ते
 बे जवाब ही रहने दिए,

के जब भी मिलो,
और पुछ बैठो की
कैसा हूँ मैं,
मेरा जवाब हो,
"ठीक हूँ!"

यूँ भी हुआ था,
जब बिछड़े थे हम दोनों
 

आँखों की गुफ्तगू

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कुछ और भी माइने हो,
ख़ामोशी तुम्हारे,
इसी एक गुमां के साथ
कितनी बार अश्कों को,
तुम्हारे हवाले किया था
आँखों की गुफ्तगू से
तब ही से यकीं जाता रहा
 

हाय रे बामन

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हाय रे बामन,
तुने मुझसे जाने कितीनी पूजा खा ली?
कितने मुझसे मंत्र पढाये?
किन किन के जाप रटाये?
जाने कितने पाप कराये?
हाय रे बामन,
कैसे कैसे रस्ते से तू,
परलोक के स्वप्न दिखलाये
पाप पुन्य का लेखा झोका
बनिए सा बखाये.
हाय रे बामन,

न जाने क्या है

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सब कुछ 
कह सुन 
लेने के बाद
सारे लेनदेन
से आगे
न जाने क्या है
जो छुट  जाता हैं?

इक उम्र

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इक उम्र तलाशें,
मोज़ज़े मैंने
इक उम्र तेरा,
इंतज़ार किया
इक उम्र रहा,
दौर ऐ हिज़्र
इक उम्र खुदको
बेजार किया

 

खुद को देख पाता

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अनसुलझे से चेहरे,
जवाब ढूँढती नज़रें
आईने के उस छोर  से
घूरते रहते हैं, हर रोज़
हर बार एक नया शक्स,
चौखट के पार से, 
सायल बन आ जाता हैं
छीलता हैं ज़ेहन को,
रूह को सालता हैं
कभी गुजरते, कभी गुजरे,
कभी आने वाले
वक़्त की बड़ी 
अजीब तस्वीर दिखाता हैं
...काश इस आईने के आगे मैं
कभी तेरी नज़रें लेकर, खुद को देख पाता 

पुराने कुछ अशआर मिले

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वर्खों में क़ैद इस तरह पुराने  कुछ अशआर मिले,
बरसों बाद, ज्यूँ, नाराजगी लिए दो यार मिले


चल ढूँढते हैं मिलकर लफ्ज़ नया जुदाई को,
बिछड़ते हुए लबों पे झिझक न इस बार मिले


वादे पर तेरे ऐतबार कर भी ले लेकिन,
इक और ज़िन्दगी का, फिरसे न इंतज़ार मिले


चाँद तलाशते जब भी नज़रों ने आसमान देखा
खुशफेहमियाँ बेचते, बस इश्तेहार मिले

"नुक्ता" बदतर हो गया

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सूरज रूठ गया, क्या हाल ऐ सहर हो गया
दश्त से भी वीरान, वाइज, तेरा शहर हो गया

कहीं बस जाने की तमन्ना को लेकर,
उसने कारवां जो छोड़ो, वो बेघर हो गया

जिद्द ज़माने को झुकाने की छोड़कर,
झुका जो भी ता सजदा अकबर हो गया

मंजिल की छाह भी,जल उठी तपिश से

चल दिल रुखसत ले, वक़्त ऐ सफ़र हो गया

इल्म रखता था,  शौक से दुनिया जहाँ का,
कुछ बात है, कई दिनों से  जरा बेखबर हो गया

सुना हैं निकम्मा था, पहले से बदनाम बहुत,
ऊपर से इश्क का बुखार, "नुक्ता" बदतर हो गया

"तुम कुछ कहते क्यों नहीं?"

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फिर खाली सफ्हे के सामने,
बैठा देती हैं, ये मज़बूरी,
ये तलब, लफ़्ज़ों में पिरोने की,
हर उस बेजुबान अरमान को,

हर उस बेशक्ल ख्वाब को,
अधुरी रात को, आसमान को,
आधे अधूरे माहताब को,
जो तुम्हारी गैर मौजूदगी में
मुझसे सिर्फ तुम्हारी बातें करते हैं
तुम्हारा हाल भी मुझसा होगा,
 इस बात का यकीं दिलाते हैं
तुम आओ या ना आओ,
चाहे न वादा करो, न निभाओ
तुम्हारा इंतज़ार करवाते हैं,

...और जब तुम रूबरू होती हो,
बेईमान दोस्तों की तरह,
मुझे बिलकुल खाली,
बिलकुल तनहा,
छोड़ कर चले जाते हैं,
बिलकुल निहत्ता,
तुम्हारे सवाल के सामने,
की "तुम कुछ कहते क्यों नहीं?"


इन लम्हों की मौत को सुना है

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इन लम्हों की मौत को सुना है
बरसों बरसों लगते हैं
यूँही दम नहीं तोड़ते ये,
हर डूबती साँस पे लड़ते है
कैसी कैसी उमीदों पर
जीते हैं और बढते है
इन लम्हों की मौत को सुना है
बरसों बरसों लगते हैं
ये लम्हें जब साँस तुम्हारी
मेरी साँसों में मिलती हैं
ये लम्हें जब ख़्वाब तुम्हारे
मेरी पलकों पे पलते हैं
इन लम्हों की मौत को सुना है
बरसों बरसों लगते हैं

सोचता हूँ अगर मैं दुवाँ माँगता

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सोचता हूँ अगर मैं दुवाँ  माँगता
हाथ अपने उठाकर मैं क्या माँगता
थक गयी जुबां, इस साहिल पे मेरी
अब के उस साहिल से सदां माँगता
मौत माँग लेता मैं खुदाया तुझसे
या इस बेजा ज़िन्दगी की वजा माँगता
जो बेरास्ता हो गया हैं सफ़र
बाकदम नयी ज़मी, आसमा माँगता
तू जो मशगुल इस जहाँ की फ़िक्र में
अपने लिए इक अलग खुदा माँगता
सोचता हूँ अगर मैं दुवाँ  माँगता
हाथ अपने उठाकर मैं क्या माँगता

कौन रंग

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कौन रंग मिट्ठी,
कौन रंग सोना,
कौन रंग की खुशियाँ,
कौन रंग का रोना?
प्रेम रंग की मिट्ठी,
प्रेम रंग सोना,
प्रेम रंग में जीवन सारा,
क्या हँसना, क्या रोना?
 

इश्कां तेरी महफ़िल में

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इश्कां तेरी महफ़िल में वो,
यूँ भी तो नाकाम हुए
एक तेरा बस दिल रखने को,
कितनी दफा बदनाम हुए

बेपार अजब चला पड़ा है,
जाहद तेरी दुनिया में,
जिस्मों के सौदों के भी,
अब तो रूहों जैसे दाम हुए

झुकती पलकें, चोर निगाहाएं,
रोज़ यहीं पर मिलती थी
बरगद की इस छाओं में,
सदियों, माशूकों के सलाम हुए

रिंदगी से हमने यारी,
इस हद तक निबा ली है
इसको पीते रहे कभी,
कभी हम, रिंदी के जाम हुए

वो भी इस के बरस सुना है,
नया मकान बनवाता है,
शीशे चढ़ते, खिडकियों पे, "नुक्ता"
इन हाथो पत्थर अब हराम हुए
_______________________________________________________________
बेपार - व्यापार, Business; रिंदगी - मयकशी, Addiction to alcohol

कुछ लफ्ज़ उठा रखे हैं

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कुछ अश्क संभाले है
हमने अपने कल के लिए
कुछ लफ्ज़ उठा रखे हैं
आने वाले पल के लिए

यूँ तो सावन सारे
बरस के बरसों बीत गए
बंजर ये जमीं, तकती है राह,
जाने किस बादल के लिए

जहां सँवारने का शौक,
अपना भी नातमाम रहा
हज़ार मसले खड़े हैं यहाँ
निज़ाम के हरेक हल के लिए

कितने घर उजड़े अब तक
जाने कितने खंडर हुए?
क्या कीमत मुनासिफ है,
शेख तेरे, महल के लिए?

शहर के बाशिंदे सारे,
मैं बुला लाया हूँ यहाँ,
नज़र आवाम की टिकी है,
रहबर तेरी, पहल के लिए
  
मंदिर, मस्जिद, मैखाने
सब दर खोल बैठे हैं
यूँ भी दुकानें सजती है
"नुक्ता", तुझ पागल के लिए

रावन

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कच्ची थी बहुत मिट्टी,
कम उम्र हाथ थे,
अनगढ़ से, खेल में
इक बुत वो बनाते थे
रंग इश्क का चढ़ाते
खुशबु से सजाते थे

उम्र हाथों की थी बढ़ती
बुत और सँवरता रहता
नूर इल्म का आया,
तजुर्बे में हुयी बरकत
फनकारी निखर आयी
जग में बड़ी थी हैरत

खिताब ओ तन्जों से
"शेखों", रिश्ता जो निभाना था
जब नाम बक्शा तुमने बुत को,
कुछ और ही बहाना था

सच उसकी जुबान के,
अब तो काँटों से थे चुबते
ज़िल्लत भरे तंज क्यों
लब से तुम्हारे थे चलते

वहिशियत से कोई कर्जा
क्या तुमको था चुकाना?
फ़रमाँ दिया,
"इस बुत के दिल में,
होगा "हाथों" से आग लगाना
ये मगरूर हैं, बेरहम हैं,
इन्साफ आज बस हम है,
बदी के पुतले को मिटाना होगा,
हमें जीना है, इसे जलना होगा
आखरी जरिया है,
खुदाई को यूँही होगा अब बचाना
इस बुत के दिल में,
होगा "हाथों" से आग लगाना"

शेखों के खौफ से,
वो हाथ काँपते थे,
लबों पे ले मुस्कराहट,
जालिम अपना रसूख नापते थे

खौफ ने हाथों के सब अरमान मिटा डाले
दबी सिसकियों से
हाथों ने, आग में, बुत को कर दिया हवाले

न जाने किस करम से
मौजजा सा हुआ
ख़ाक हुए सब,
इल्म, फन, तजुर्बा
पर मेरा रावन नहीं जला

तलाश इक

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तलाश इक,
इक प्यास लिए,
दर टटोले कितने,
टूटती सांस लिए?

 

क्या क्या बनना था

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आँधी से मिले, 
तूफां से चल दिए
बेज़ार हम तन्हा
इक आह भरकर रह गए
साथी, हमराह, 
रहभर, मंजिल
क्या क्या बनना था,
राह-ए-हयात में
हम क्या बनकर रह गए
   

अंधेरो ने बज़्म में

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अंधेरो ने बज़्म में,
शिरकत शुरू की है
चल शायर,
मजलिस उठ जाने को 
अब वक़्त ज्यादा नहीं
तन्हाइयों से चाँद की बातें,
रोक ही दो जरा,
इनको भी रूठ जाने को
अब वक़्त ज्यादा नहीं
तक्क्लुस, खिताब
और तानो की हवस
बाकी ना रहे,
लफ़्ज़ों का साथ छुट जाने को
अब वक़्त ज्यादा नहीं
 

तेरे लबों का छु लेना

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तेरे लबों का छु लेना
नसीब अगर होता
 मेरे लफ़्ज़ों में
दुआओं सा असर होता
ये ज़िन्दगी भी 
रूमानी हो ही जाती
एक दिन जो मौत की तरह
जीने का भी मुकर्रर होता
वादा झूठा ही सही 
कर तो जाते 
नादान इस दिल को
एक क़यामत तक
और सबर होता
 
  

विस्मृत कुछ यादें

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विस्मृत कुछ यादें
उन पगडंडियों पर
छितरी छितरी 
शत आभार
हे वसुंधरा
जो याद कराया
भूमि पुत्र हूँ मैं
    

तेरी जात क्या है?

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रौशन तुझसे, 
मैकदे, कब्रें, 
शिवाले सब
लौ ए शम्मा 
तेरी जात क्या है?
 

इश्क

Author: Kapil Sharma / Labels:

इश्क, अजब दर्द की बेहया दास्ताँ
रेजां रेजां लम्हों का, नातमाम बयाँ

ए ख्वाब

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जब भी सुबह
अलसाकर पलकें खोलता हूँ
ए ख्वाब, तुझे 
उस करवट लेटा देखकर
बेसबब बेवजा ही
मुस्कुरा देता हूँ

यूँ मिलने जहान की,
दौड़ धुप से
घर से कदम बाहर डालता हूँ
ए ख्वाब, तेरी आँखों 
दुआ ए खैरियत देखकर
बेसबब बेवजा ही
मुस्कुरा देता हूँ

पहलु में रात
के जो कुफ्र सबाब से परे
फिर तूझी में सुकूं तलाशता हूँ
ए ख्वाब तुझे
खुद पर चादर सा ओढ़कर
बेसबब बेवजा ही
मुस्कुरा देता हूँ
 
 
 

कौन शक्स उस जगह मिला?

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मुझे तेरी फुरकत का
अजब तजुर्बा मिला
गर तू नहीं था तो
कौन शक्स उस जगह मिला?

चाल मुकद्दर की, कब,
किसको समझ आई हैं,
क्यों जुदा हुए हैं, कोई किसे,
किस वजह मिला?

बामौत के दावों पर
यकीन मुझको नहीं हैं
जिसका जैसा नसीब,
सब उसको यहाँ मिला

सजदा ए पाक में "नुक्ता",
ये ऐब सा रहा,
बेवजू रही नजर मेरी,
वो बनकर खुदा मिला

"प्रेम", तुमने एक क्षण में

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मदिरालय औ' देवालय का
अंतर सहज मिटा दिया
"प्रेम", तुमने एक क्षण में
क्या से क्या बना दिया?

 देव मधु प्रसाद चखें 
मदिरालय से पंचमृत बहें
 एक रंग,एक आनंद
ये पाठ कैसा पढ़ा दिया
"प्रेम", तुमने एक क्षण में
क्या से क्या बना दिया?

कृष्ण पक्ष या शुक्ल पक्ष हो
भेद तुमको ज्ञात नहीं
अन्तराल में गतिमान चन्द्र को
प्रियतम का अहोदा दिया
"प्रेम", तुमने एक क्षण में
क्या से क्या बना दिया?

रचा तुमको रचेता ने
या रचनाकार तुमने रचा?
कैसे, कैसे प्रश्नों का
उत्तर कहाँ छिपा दिया

"प्रेम", तुमने एक क्षण में
क्या से क्या बना दिया?
 
 

त्रिवेणी

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अखबार की कतरनों सी यादें
धुल चढ़े अलबमों में दबी रहती,

नाशुक्रा तूफ़ान जो घर से ना गुजरता
____________________________________________

यकीन दिल को भी आ जाये,
सब भूल गए हो तुम,

फेसबुक पर तस्वीरों  को like करना जो छोड़ो तुम
  
____________________________________________

सच ही कहा था तुमने, ज़िन्दगी हँसीमजाक में कट जाएगी
तुम सबके चेहरे की हँसी बन गए
...मैं सबकी ज़िन्दगी का मजाक
____________________________________________

दुआ, अदा, हया, शमा
वो मुस्कुराते रहे

नजर के रंग बदलते रहे
____________________________________________

क्या रंज था?

Author: Kapil Sharma / Labels:

वो जो एक लहजा सुकूँ भरा
वो  जो प्यार से प्यारा तंज़ था
अश्क गिर पड़े तो दर्द हैं,
पलकोंपे थे, क्या रंज था?

अब भी उन कुचों से

Author: Kapil Sharma / Labels:

...अब भी उन कुचों से गुजरते हुए
खामोश हो जाती हैं
जुबां सोच की
सारे ख़्याल 
थम से जाते हैं
नज़रें उस खिड़की को
चुरा ले जाना चाहती हैं

बीते लम्हें,
सर्द कोहरे की तरह
न जाने कहाँ से
उतर आते हैं
स्लेटी हो चली
दोपहर कुछ
ज्यादा उदास
लगने लगती हैं
आहट क़दमों की
उस रास्ते पर
अजब कशमकश
से गुजरती हैं
...अब भी उन कुचों से गुजरते हुए


 

प्रश्नों का प्रवाह

Author: Kapil Sharma / Labels:

प्रश्नों का प्रवाह
निरंतर, 
निर्लिप्त
मेरी हंसी से
मेरे आँखों की
नमी से

मग्न अपने आप में
अथक न जाने 
किस अपेक्षा से?
निर्मोह उत्तरों की
प्रतीक्षा से
सम्यक, जीवन की
व्याख्या से
प्रश्नों का प्रवाह
निरंतर, निर्लिप्त

प्रवाहित, एकदिश
मंदिर से मधुशाला
सर्वव्याप्त
क्या संत,
क्या पीनेवाला
समग्र, विलेय
क्या हलाहल
क्या हाला
प्रश्नों का प्रवाह
निरंतर, निर्लिप्त

ये लम्हा

Author: Kapil Sharma / Labels:

साहील के रेत पर
निशाँ  पैरों के तलाशने,
ये लम्हा बेवक्त घर से निकला था.
कुछ रूठा सा कुछ टुटा सा,
फिर बिखरने या संभलने,
ये लम्हा बेवक्त घर से निकला था.

उस कमरे की एक अलमारी,
यही कही वह छिपती थी,
नादान बेचारा, उसे खोजने
ये लम्हा बेवक्त घर से निकला था.

किताबों की मानिंद

Author: Kapil Sharma / Labels:

हर्फ़, हर्फ़ पढ़ता रहूँ
सफ़्हा, सफ़्हा जीता रहूँ
किताबों की मानिंद,
कुछ लोग 
ज़िन्दगी में अज़ीज़ होते हैं.
     
 

खुश करने तुझको

Author: Kapil Sharma / Labels:

अब लफ्ज़ नए ढूंढ़ लूँ, नया तरीका करूँ
आ दिल, नए सबब पर तुझको परीशाँ करूँ

इक तंज की वजह, ज़माने के हाथ दूँ
 लबों पे रखकर हंसी कुछ और गुनाह करूँ

रात कट चुकी, मंजिल के जेरे साया
सेहर हैं, उठूँ, नया  रास्ता करूँ

इश्क की और तरहा, मुझको खबर नहीं
गर इश्क  को इबादत न तुझको खुदा करूँ

वजूद को मैंने अपने, दुश्मन कहला लिया
खुश करने तुझको "नुक्ता"  मैं और क्या करूँ?
 

शतरंज

Author: Kapil Sharma / Labels:

इस चौखट को,
देखे वो भी
मुझसा घाग,
मुझसा चालाक
सोचे मुझ जैसी
शह  औ' मात
हाथी, घोड़े
राजा रानी
सारी चालें
एक सामान
ये अजब
शतरंज चला है
एक रंग सी
दोनों जात

मुझको भी ये तरकीब सीखा, ऐ यार जुलाहे

Author: Kapil Sharma / Labels:



बन जाने में, बिगड़ जाने में,
धागे भर का फरक होता है
इस चादर से जाने कितनी
सिलाई अब तो उधड चली है
धागे कितने उलझ चुके
ये इक ताना, बना या बिगड़ा
मुझको इतना समझा दे यार जुलाहे
मुझको भी ये तरकीब सीखा, ऐ यार जुलाहे ...

तन्हा चलता

Author: Kapil Sharma / Labels:

कुछ और ज़माने तन्हा चलता
चुप ही हो जाता, कुछ न कहता
ये ख़ामोशी जो पहचान बन चली थी
वजूद बन जाती, कुछ न रह जाता
कुछ और ज़माने तन्हा चलता
चुप ही हो जाता, कुछ न कहता
ये स्याह रंग चेहरे का और गहराता
मैं ना जाने किन अंधेरों में खो जाता
कुछ और ज़माने तन्हा चलता
चुप ही हो जाता, कुछ न कहता

 ...खैर खुदा की नेमत जैसे तुम चले आये

अंतर्मन