कहने के लिए

Author: Kapil Sharma / Labels:

कितनी बातें हैं, वक़्त कितना कम, कहने के लिए
थोडी देर  ठहर जा, रख ले भरम, कहने के लिए

तासीर ए अश्क़ भी हैं बेअसर जिन ज़ख्मों को
तुम ले कर आये हो मरहम कहने के लिए

हर बात रूमानी हो जाती है शायर तेरी दुनिया में,
शाम के आँसू बन जाते हैं शबनम, कहने  के लिए

रात को जो तू स्वांग रचाये, उल्फत के, मुहब्बत के,
दिन में नुक़्ता को आती हैं शरम, कहने के लिए






ए मुहब्बत

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अच्छे और बुरे में
तौल लू जिसे मैं,
नशा, तेरा इतना भी, सस्ता नहीं हैं
बच तो जाता हैं तेरा काटा,
ए मुहब्बत,
मगर काम का, फिर वो बचता नहीं हैं

तसव्वुर

Author: Kapil Sharma /

यूँ तसव्वुर तेरा,
पूरा भर देता है,
वजूद मेरा,
तेरे दीद की तमन्ना
मेरे दिल को
क्योकर हो?

शुक्रिया

Author: Kapil Sharma /

ये तल्खी ज़ुबान की,
कड़वाहट भरा सा ज़ेहन
बे तबस्सुम लब,
ये अदावत का पैरहन
बस इसलिए कि कोई
अपना करीब नही,
किसी की अमानत है,
अपना नसीब नही?
क्यों खो रहे हो,
वाइजों के रस्मो रिवाज़ में
क्यों खेल रहे हो
किसी और के अंदाज़ में?
वो इश्क़ क्या इश्क़ नही,
जो खो कर पाया जाता हैं?
क्या भूले हो वो लुत्फ जो
अश्कों संग बहाया जाता हैं?
जो माशूक को देनी थी,
ये नामुराद सौगातें?
क्योकर नुक्ता अब तलक,
तुम अपनी फकीरी पर इतराते?
क्या हुआ जो सुबहो शाम,
अपनी तकदीर में उनका दीद नही?
इतना छोटा सोचोगे,
ये तुमसे तो उम्मीद नही
उसके तस्सवुर से भर लो
रूह, दिल औ आसमान
छोड़ो तल्खी, कड़वाहट
लब पे लौटाओ मुस्कान
देखो ये हर खूबसूरत सहर
उसी परिवश का है एहसान,
शुक्रिया ए महज़बीं
शुक्रिया ए राहत ए जान!


सखी

Author: Kapil Sharma /

अर्थहीन मुझे, वो ज्ञान रण का
क्या गिरधर कहे, क्या पार्थ, सखी
तेरे बिन इस व्याकुल मन की,
कौन सुनेगा,  पीड़ा आर्त, सखी
प्रत्येक शब्द से तेरे,
रिसकर आते अमृतजल ने,
कितनी बार बचाई है रूह मेरी
फिर से ये अंधेरे मुझे गर्त करे है
थाम हाथ मेरा,
मुझे बाहर निकाल सखी
गरल लगता है ये यथार्थ सखी
तेरे बिन इस व्याकुल मन की,
कौन सुनेगा,  पीड़ा आर्त, सखी

तुम पूछती हो,
क्या अंत समय तक,
कभी साथ निभा हम पाएंगे?
लाख करे प्रयत्न देव भी,
ना प्रेम हिमालय डिगा वे पायेंगे
जिसे कहती हो तुम स्वार्थ,
वही है प्रेम में परमार्थ, सखी
तेरे बिन इस व्याकुल मन की,
कौन सुनेगा,  पीड़ा आर्त, सखी

हथेली

Author: Kapil Sharma /

महकता है पूरा वजूद मेरा
इस हिना से बने गुलनार की तरह
चमकते है सितारें कई हज़ार
तेरी कलाई पर बंध इतराते है
नाखूनों पर तेरी कितने
तीज के चाँद नज़र आते है
एक तेरी हथेली पर
मैंने पा ली है कायनात अपनी

हमें, आये कोई समझाने को?

Author: Kapil Sharma / Labels:

धागे भर का फर्क है बस,
हस्ती बनने को, बिगड़ जाने को
अपनी तो बन गयी, समझली हैं
हमें, आये कोई समझाने  को?


हम तो चले है, नूर तुम्हारा
साकी रहे सलामत अब,
बरकत रहे तुम पर रिंदों की,
नज़र न लगे तेरे मैखाने को


काँधे ले इश्काँ की दूकान,
हाट बाजार, हांक लगाए है,
नहीं नफा, नुक्सान बहोत है,
बतला दो, तुम ही दीवाने को


क्या किस्सा था, कैसे बयां का ,
जिक्र कर रहा था वो अजनबी
क्यों नम थी नज़र-ए -साक़ी,
क्यों दर्द हुआ था पैमाने को?

अंतर्मन