बस सोच भर लेने से रिश्ते टूटते क्यों नहीं?
हाथ छुट गए, दिल छुटते क्यों नहीं?
ख़्वाबों में क्यों छाए रहते वो साए,
जिनको भूलने में बरसो लगाये?
क्यों काई से जमे हैं अरमान आखों पर,
ये भांप बन पलकों से उठते क्यों नहीं?
बस सोच भर लेने से रिश्ते टूटते क्यों नहीं?
हाथ छुट गए, दिल छुटते क्यों नहीं?
क्या सब इन्हें यूँही संजोते हैं,
इक चोट पे हँसते हैं, इक चोट पे रोते हैं?
घटती हैं ज़िन्दगी, लम्हा दर लम्हा,
ये घाव जिगर के घटते क्यों नहीं?
बस सोच भर लेने से रिश्ते टूटते क्यों नहीं?
हाथ छुट गए, दिल छुटते क्यों नहीं?
क्यों हर आती जाती सांस पे जीते औ' मरते हैं
क्यों आँखों की चादर पे,
ख़्वाबों की सलवट से भी डरते हैं?
क्यों पतझड़ में,
दरख्त से पत्ते इक इक कर झड़ते हैं?
बेमुराद ये पेड़, जड़ से कटते क्यों नहीं?
बस सोच भर लेने से रिश्ते टूटते क्यों नहीं?
हाथ छुट गए, दिल छुटते क्यों नहीं?
अँधेरे, उदास चेहरे को ढक जाते हैं,
उदास मन को मगर ये,
कहाँ घेर पाते हैं?
इस खिड़की से कभी रौशन सूरज भी झाँक ले,
मेरे कमरे से ये सर्द पेहरे हटते क्यों नहीं?
बस सोच भर लेने से रिश्ते टूटते क्यों नहीं?
हाथ छुट गए, दिल छुटते क्यों नहीं?
बस सोच भर लेने ...
Author: Kapil Sharma / Labels: MEइक इक पल
कई सवाल,
सदियाँ गुजरती है कैसे लम्हों में क़ैद?
आती जाती हर सांस क्यों बेकल?
इक इक पल
कई सवाल,
बेसबब से वजूद में, बेवजह सी ज़िन्दगी में
माइने क्यों सिर्फ इक शकल?
इक इक पल
कई सवाल,
नैना जैसे राह बिछे हो, हर आहट पे
बनते, बिखरते हैं, उम्मीदों के क्यों महल?
इक इक पल
कई सवाल,
दर्द ओ चैन में दिल में लड़ते हैं इस कदर
क्या हो हासिल, हैरान क्यों अकाल
इक इक पल
कई सवाल इक तेरे इंतेज़ार में .
आज फिर नकाब से
Author: Kapil Sharma / Labels: MEइक और चेहरा उतर गया आज फिर नकाब से
क्या, क्या उम्मीद लगाये बैठे थे यार हम आपसे
कैसे कैसे इम्तहान लेता रहा हैं वक़्त?
अदावत निभाता रहा न जाने किस हिसाब से
इक और चेहरा उतर गया आज फिर नकाब से
कितने हसीं पल थे वोह सारे, कितनी प्यारी बातें थी
अब लगाता हैं लौटें हैं, बचकर हम तो एक अजाब से
इक और चेहरा उतर गया आज फिर नकाब से
हकीक़त से बेखबर, बेपरवाह ही रहे, नुक्ता
ज़िन्दगी बसर दी साड़ी, नाहासिल से ख्व्वाब से
इक और चेहरा उतर गया आज फिर नकाब से
अब न पूछो दिल का आलम, इसकी ख़ामोशी का राज़
सारे सवाल गूंगे हो गए, उनके इक जवाब से
इक और चेहरा उतर गया आज फिर नकाब से
रौशन होगा सारा मंजर, रौशन रौशन कायनात,
जल जाने की शर्त लगा बैठा हैं, नुक्ता, आफताब से
सच की मियादें
Author: Kapil Sharma / Labels: MEसच की मियादें कितनी कम थी
जो तेरे लिए मैं ले आता ?
कड़वे, चुबते, जलते सच से
कैसे तुझको मना लाता ?
कितने गिरेबाँ में चाक थे मेरे
कितने तू सीती, कितने सिलवाता ?
-अधूरी रचना