ना कुफ्र का डर, ना अरमां सबाब का

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ना कुफ्र का डर, ना अरमां सबाब का
इक उम्र इंतज़ार की, इक लम्हा आदाब का

बातें सारी नज़रों से, चुप चुप हैं जुबां,
पूछे कोई क्या पूछे, सवाल उनके जवाब का?
ना कुफ्र का डर, ना अरमां सबाब का

आँखें डरी डरी रही हैं सारा दिन,
बहुत देर रहा असर, कल रात के ख्वाब का
ना कुफ्र का डर, ना अरमां सबाब का

किसे करू शिकायत तेरी,  मेरा अपना हैं यहाँ कौन?
साकी तेरा, मैकदा तेरा, तेरा प्याला शराब का
ना कुफ्र का डर, ना अरमां सबाब का

आँखों के मौसम का हाल

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इक पनाह उस बरगद की,
और इक उम्र की शिकायतें.
हम कल गुजरे फिर उस गली से
कल फिर घण्टों की बातें

वो रूठी, रोई, लड़ी भी मुझसे
दो पल में फिर मान गयी
उठी, यों पल्ला झाड़ा क्षण में,
एक ह्रदय, सौ-सौ आघातें

पूछने लगे हैं लोग अब तो,
नुक्ता तेरी आँखों के मौसम का हाल
सेहरा जैसे तपते पत्थर,
या मुसल सल बरसातें

शौक क्यों ये पाल रखा हैं,
तुमने बाज़ार लगाने का,
बन तमाशबीन, रहते चैन से किनारे,
नुक्ता, तुम भी वाइज़ कहलातें

यूँ धड़कन, धड़कन मरने को,
वो जीने की निशानी कहते है
कसम की रसम जो बाकी ना होती,
ना जीते यूँ, भले ही मर जाते

"सच कहता हूँ, मुझको याद तुम्हारी सताती नहीं"

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रंग कुछ ज्यादा फ़ीके लगते हैं

ये ओस सुबह की लुभाती नहीं
मकाँ ऐसा बनाते हैं दिल में लोग कुछ
वो न हो कोई चीज़ भाती नहीं

यूँ तो अपना आस्मां, ढक लेता हैं सर मेरा
तलाशती नज़रें उन्हें फिर भी,
दिल को मेरे कोई और शह  ढक पाती नहीं

दो-चार रोज़ यूँ तो अरसा लम्बा नहीं होता,
वाइजों यहाँ
बात सीधी सी हैं, "नुक्ता" नादान को समझ आती नहीं

वक़्त का दरया, मौजों संग किनारे, लेकर लौट जाता हैं
रेत के महल बिखरते हैं लेकिन  वो घर लौट के जाती नहीं

लम्हे, पल और घड़ियाँ सारी, सिरहाने शोर मचाती हैं
तंग करने को तुम नहीं हो, नींद मुझे क्यों आती नहीं

"लौट आओ, 'मन्ना", दर ओ दीवार कहते हैं,
"सच कहता हूँ, मुझको याद तुम्हारी सताती नहीं"

सच्चाई जो गैर बर्दाश्त,

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सच्चाई जो गैर बर्दाश्त,
फिर सच मुझसे मांगे क्यों?
वक़्त से जीत नहीं होती गर जो
क्यों लड़े, इस संग भागे क्यों?

कदम जो ठिठक थे,
उस मोड़ तुम्हारे
रिश्ते अपाहिज हो गए थे
कोई साथ चले अपने भी,
ये उम्मीद हो आगे क्यों?

जो कहते थे, तुम मैं, मैं तुम
अब वो  बचकर चलते हैं
आँखें फेर यूँ महफ़िल बैठे
मैं कौन, तू मेरा कुछ लागे क्यों? 

ख्वाब अजीब हैं

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रुकी रुकी जमीं,
रुका हुआ  अम्बर,
उदास, अकेला
ठहरा ठहरा मंजर


टुटा सा इक
धनुक का कोना
शफक पे बिखरा पड़ा
शाम का सोना

जुदा जुदा से
पल वो सारे
रोते हँसते, 
चुप चुप रहते कभी,
कभी बहुत बतियाते 

दूर खड़ी वो
सहमी सहमी,
आँखों में लिए,
खौफ, राज़ या
कोई खुश फ़हमी

दुबका कुचला
अहम् मेरा,
बनते बिगड़ते
नातों का फेरा

फ़ैसले हज़ार,
रुके, ठहरे
गूंगा क़ाज़ी,
गवाह बहरे

ये तन्हा सिमटी रात अजीब हैं
इसके दामन के ये ख्वाब अजीब हैं

बस सोच भर लेने ...

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बस सोच भर लेने से रिश्ते टूटते क्यों नहीं?
हाथ छुट गए, दिल छुटते क्यों नहीं?
ख़्वाबों में क्यों छाए रहते वो साए,
जिनको भूलने में बरसो लगाये?
क्यों काई से जमे हैं अरमान आखों पर,
ये भांप बन पलकों से उठते क्यों नहीं?
बस सोच भर लेने से रिश्ते टूटते क्यों नहीं?
हाथ छुट गए, दिल छुटते क्यों नहीं?



क्या सब इन्हें यूँही संजोते हैं,
इक चोट पे हँसते हैं, इक चोट पे रोते हैं?
घटती हैं ज़िन्दगी, लम्हा दर लम्हा,
ये घाव जिगर के घटते क्यों नहीं?
बस सोच भर लेने से रिश्ते टूटते क्यों नहीं?
हाथ छुट गए, दिल छुटते क्यों नहीं?



क्यों हर आती जाती सांस पे जीते औ' मरते हैं
क्यों आँखों की चादर पे,
ख़्वाबों की सलवट से भी डरते हैं?
क्यों पतझड़ में,
दरख्त से पत्ते इक इक कर झड़ते हैं?
बेमुराद ये पेड़, जड़ से कटते क्यों नहीं?
बस सोच भर लेने से रिश्ते टूटते क्यों नहीं?
हाथ छुट गए, दिल छुटते क्यों नहीं?



अँधेरे, उदास चेहरे को ढक जाते हैं,
उदास मन को मगर ये,
कहाँ घेर पाते हैं?
इस खिड़की से कभी रौशन सूरज भी झाँक ले,
मेरे कमरे से ये सर्द पेहरे  हटते  क्यों नहीं?
बस सोच भर लेने से रिश्ते टूटते क्यों नहीं?
हाथ छुट गए, दिल छुटते क्यों नहीं?

इंतेज़ार

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इक इक पल
कई सवाल,
सदियाँ गुजरती है कैसे लम्हों में क़ैद?
आती जाती हर सांस क्यों बेकल?
इक इक पल

कई सवाल,
बेसबब से वजूद में, बेवजह सी ज़िन्दगी में
माइने क्यों सिर्फ इक शकल?
इक इक पल

कई सवाल,
नैना जैसे राह बिछे हो, हर आहट पे
बनते, बिखरते हैं, उम्मीदों के क्यों महल?
इक इक पल

कई सवाल,
दर्द ओ चैन में दिल में लड़ते हैं इस कदर
क्या हो हासिल, हैरान क्यों अकाल
इक इक पल 
कई सवाल इक तेरे इंतेज़ार में .

आज फिर नकाब से

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इक और चेहरा उतर गया आज फिर नकाब से
क्या, क्या उम्मीद लगाये बैठे थे यार हम आपसे
कैसे कैसे इम्तहान लेता रहा हैं वक़्त?
अदावत निभाता रहा न जाने किस हिसाब से
इक और चेहरा उतर गया आज फिर नकाब से
कितने हसीं पल थे वोह सारे, कितनी प्यारी बातें थी
अब लगाता हैं लौटें हैं, बचकर हम तो एक अजाब से
इक और चेहरा उतर गया आज फिर नकाब से
हकीक़त से बेखबर, बेपरवाह ही रहे, नुक्ता
ज़िन्दगी बसर दी साड़ी, नाहासिल से ख्व्वाब से
इक और चेहरा उतर गया आज फिर नकाब से
अब न पूछो दिल का आलम, इसकी ख़ामोशी का राज़
सारे सवाल गूंगे हो गए, उनके इक जवाब से
इक और चेहरा उतर गया आज फिर नकाब से

रौशन होगा सारा मंजर, रौशन रौशन कायनात,
जल जाने की शर्त लगा बैठा हैं, नुक्ता, आफताब से

सच की मियादें

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सच की मियादें कितनी कम थी
जो तेरे लिए मैं ले आता ?
कड़वे, चुबते, जलते सच से
कैसे तुझको मना लाता ?
कितने गिरेबाँ में चाक थे मेरे
कितने तू सीती, कितने सिलवाता ?
                                               -अधूरी रचना

रहगुजर

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इक तन्हा सफ़र...
इक मंजिल
दूर इस कदर...
सांसें मद्धम, पड़ती कम
कम होती नहीं रहगुजर...

मत पूछो क्या हैं?

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कुछ दिन हुए हम अपने आपसे रूठे है
मायूस से एक कमरे में तन्हा से  बैठे है
एक रात की बात को सिरहाने लगा के
बेमन से लेटे रहते हैं
एक रात की बात को धड़कन बना के
खुद ही सुनते रहते हैं
कुछ दिन हुए हम अपने आपसे रूठे है
मायूस से एक कमरे में तन्हा से बैठे है
उस रात वो हमसे ये कहकर चले थे
नुक्ता तुम झूठे हो
कुछ दिल में रखते हो, कुछ और ही अपनी
जुबां से कहते हो
 कुछ दिन हुए हम अपने आपसे रूठे है
मायूस से एक कमरे में तन्हा से  बैठे है
यूँ सोच में तबसे दिल हैं और मैं हूँ
क्या सचमुच में नुक्ता मैं तुझसा बुरा हूँ?
क्या सचमच ये दुनिया तुझसे भली हैं?
क्या तुझे छोडके किसीको तेरी कमी खली हैं?
क्यों नादान ये बेसबब की बातें,
छीने सुकून दिन का और पुरसुकून रातें?
क्या जवाबो में कोई चैन मिलेगा,
क्या खोया है तेरा जो वापिस मिलेगा?
कुछ दिन हुए हम अपने आपसे रूठे है
मायूस से एक कमरे में तन्हा से  बैठे है




फनकार

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बड़े खूबसूरत वो घरोंदे बनाता
बड़े मुहतात से उनको सजाता
हर एक जोड़ पे कितने ख्वाब बसाता
हसरतो के रंग शौक से लगाता

फनकार था यकीनन वो बेहतर, बेहतर
हर नक्श में कैसे जोहर दिखाता
बड़ी दिलकश होती तखलीक उसकी
कई गुल अश्कों के उसपे खिलाता

...वो "ताबुतसाज़"... हैं और रहेगा
आखरी ज़रया-ए-सफर  वही तो बनाता

घर

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इक घर बनाना है
सब ही बनाते हैं
खरीददारी कर बाज़ार से
कितने रिश्ते सजाते हैं

जब तक तुम साथ हो

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नब्ज़ थामे रखो थोडी देर और,
देखो एक पल तो बाकी हैं अभी
दौडेगा थोडी दूर अभी ये,
भूल जायेगा दर्द सारे, रंज सारे
मचलेगा नये अरमानो संग अभी
नये ख्वाबो के पर लगाकर,
उड़ने की कोशीश भी करेगा

नादान हैं, मासूम हैं बड़ा,
...जी लेने दो इसे
...जब तक तुम साथ हो

सच्चे...झूठे

Author: Kapil Sharma / Labels:

कई सच हैं उसके
एक दुसरे से जुदा
क्या सारे सच हैं
क्या सारे सच, सच हैं
या कुछ सच्चे
और कुछ झूठे
या सारे सच झूठे हैं
...उसकी तो वो ही जाने

यूँही खामोश से

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यूँही खामोश से,
साहिल पर वो दोनों,
ख्वाब बुनते एक दूजे के,
एक दूजे के लिए,
उम्मीद में के कभी तो,
...ये समंदर सुख जायेगा

तेरा आँचल

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बहुत रोया हैं सूरज दिन भर
बहुत लम्बी थी खामोश शामें
उदास उदास थी रात आज भी
चाँद पे ताला लगाया था किसने?
क्यों बेवजह नींदें उचट रही हैं?
क्यों चुबता हैं बिस्तर मुझे?
क्या बात हैं ख्व्वाब सारे
बिलख बिलख कर उठते हैं?
क्यों लापनाह ये नज़रें मेरी
...तेरा ही आँचल तलाशती हैं?

ना जाने क्यों

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हज़ार अब्र शक के
क्यों उभरे हैं महफिल की आँखों में
बस एक उसका नाम ही
तो लिया था मैंने
क्यों तंज़ हजारो उड़ चले मेरी और
बस प्याला ही तो कसमसा कर
तोडा था मैंने
क्यों बह चले आंसुओ साथ
अरमान सारे मेरे
बस एक ख्वाब को इन
आँखों में रोका था मैंने

दर्द ठहरता हैं देर तक

Author: Kapil Sharma / Labels:

दर्द ठहरता हैं देर तक
मगर एक दिन खत्म
हो ही जाता हैं
इसके  निशाँ लेकिन
कुछकर जाते नहीं हैं
बेचिराग घर की तरह
पड़े रहते हैं वहीँ के वहीँ
...एक बार एक चिराग जला दो
...एक बार इस रूह को सुकू मिल जाये
...भटकते भटकते थक गया हूँ

कौन पल हैं? कैसा वक्त? लम्हा कौन सा है

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कौन पल हैं? कैसा वक्त? लम्हा कौन सा है?
एक शक्स मुझे क्यों लगता खुदा सा हैं?

वो शक्ल मासूम सी

फरिश्तो की जलन

उसकी हर अदा

पुरवाई का झोंका सा हैं

कौन पल हैं? कैसा वक्त? लम्हा कौन सा है?
एक शक्स मुझे क्यों लगता खुदा सा हैं?

उसे ढाला तुने

किस फन से याखुदा मेरे

सपनो में पला हैं या

माँ की दुआ सा हैं

कौन पल हैं? कैसा वक्त? लम्हा कौन सा है?
एक शक्स मुझे क्यों लगता खुदा सा हैं?

जिंदा हूँ मैं

यकीं ख़ुद मुझे

आता नहीं

ता-क़यामत लम्हा क्यूँ ठहरा सा हैं

कौन पल हैं? कैसा वक्त? लम्हा कौन सा है?
एक शक्स मुझे क्यों लगता खुदा सा हैं?

यूँ भी दर्द की दवा हो कपकपाती लौ, जोरों की हवा हो

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यूँ भी दर्द की दवा हो
कपकपाती लौ, जोरों की हवा हो
सर्द अरमानो को एक मौत मिल ही जाए
जो वादों का सारे फ़िर से बयाँ हो
पनाहगाह मेरी, ख़ुद पनाह मांगती
तुम ही बोलो खुदाया अब मेरा क्या हो
यूँ भी दर्द की दवा हो
कपकपाती लौ, जोरों की हवा हो

दिन ठहरते हैं देर तक

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दिन ठहरते हैं देर तक

थक कर सूरज की छाँव में

उदास से, रूठे हुए

उस उजडे हुए गाँव में

...के शामों ने उन घरों से पनाह उठा ली हैं

बरगद के नीचे अब

कोई जमघट लगता नहीं

यूँ भी तो होता होगा

Author: Kapil Sharma / Labels:

मानता हूँ वो झूठ बहुत बोलता हैं
कभी कभी सच भी तो कहता होगा
उसकी ज़िन्दगी में
...यूँ भी तो होता होगा

मानता हूँ वो बड़ा दिलफरेब हैं
किसी के लिए तो दिल उसका भी बिलखता होगा
उसकी ज़िन्दगी में
...यूँ भी तो होता होगा

ज़िन्दगी की भागदौड़ ने थका ही दिया होता
किसी दरख्त की छाँव में चैन से सोता होगा
उसकी ज़िन्दगी में
...यूँ भी तो होता होगा

अब भी क्या वो आईने
सच ही कहते हैं
क्या तजुर्मा उनका
बदला नही हैं
...बहुत दिन हुए उस कमरे में आए

एक पल

Author: Kapil Sharma /

एक पल, एक संसार
निशब्द, अपरम्पार
वो प्रकाश,
वो आधार
जीवन का सार

अंतर्मन

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उलझा उलझा जीवन मेरा
उलझा उलझा अंतर्मन
भटकाता कभी, कभी राह दिखता
पगला रहबर अंतर्मन

अंतर्मन