इक पनाह उस बरगद की,
और इक उम्र की शिकायतें.
हम कल गुजरे फिर उस गली से
कल फिर घण्टों की बातें
वो रूठी, रोई, लड़ी भी मुझसे
दो पल में फिर मान गयी
उठी, यों पल्ला झाड़ा क्षण में,
एक ह्रदय, सौ-सौ आघातें
पूछने लगे हैं लोग अब तो,
नुक्ता तेरी आँखों के मौसम का हाल
सेहरा जैसे तपते पत्थर,
या मुसल सल बरसातें
शौक क्यों ये पाल रखा हैं,
तुमने बाज़ार लगाने का,
बन तमाशबीन, रहते चैन से किनारे,
नुक्ता, तुम भी वाइज़ कहलातें
यूँ धड़कन, धड़कन मरने को,
वो जीने की निशानी कहते है
कसम की रसम जो बाकी ना होती,
ना जीते यूँ, भले ही मर जाते
आँखों के मौसम का हाल
Author: Kapil Sharma / Labels: ME
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3 comments:
यूँ धड़कन, धड़कन मरने को,
वो जीने की निशानी कहते है
दिलचस्प,मार्मिक है कि सीधे दिल तक उतर आती है ।
rachna bahut pyari hai.. :)
वो जीने की निशानी कहते है
दिलचस्प,मार्मिक है कि सीधे दिल तक उतर आती है ।
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