"सच कहता हूँ, मुझको याद तुम्हारी सताती नहीं"

Author: Kapil Sharma / Labels:

रंग कुछ ज्यादा फ़ीके लगते हैं

ये ओस सुबह की लुभाती नहीं
मकाँ ऐसा बनाते हैं दिल में लोग कुछ
वो न हो कोई चीज़ भाती नहीं

यूँ तो अपना आस्मां, ढक लेता हैं सर मेरा
तलाशती नज़रें उन्हें फिर भी,
दिल को मेरे कोई और शह  ढक पाती नहीं

दो-चार रोज़ यूँ तो अरसा लम्बा नहीं होता,
वाइजों यहाँ
बात सीधी सी हैं, "नुक्ता" नादान को समझ आती नहीं

वक़्त का दरया, मौजों संग किनारे, लेकर लौट जाता हैं
रेत के महल बिखरते हैं लेकिन  वो घर लौट के जाती नहीं

लम्हे, पल और घड़ियाँ सारी, सिरहाने शोर मचाती हैं
तंग करने को तुम नहीं हो, नींद मुझे क्यों आती नहीं

"लौट आओ, 'मन्ना", दर ओ दीवार कहते हैं,
"सच कहता हूँ, मुझको याद तुम्हारी सताती नहीं"

3 comments:

मनोज कुमार said...

रंग कुछ ज्यादा फ़ीके लगते हैं
ये ओस सुबह की लुभाती नहीं
अच्छी रचना। बधाई।

@ngel ~ said...

mujhe yaad tumhari satati nahi...

bas kavita likhkar man behla leta hoon
aur yaad na aao isi dua per ek kavita likh leta hoon...
aur phir khud se ye kehta hoon
mujhey yaad tumhari satati nahi...

Jo man mein aaya aapki kavita padhkar likh diya.
Aapki rachna achhi hai...
Keep writing! And thanks for your comments on my posts :)

Kapil Sharma said...

Dhanywaad

अंतर्मन