रावन

Author: Kapil Sharma / Labels:

कच्ची थी बहुत मिट्टी,
कम उम्र हाथ थे,
अनगढ़ से, खेल में
इक बुत वो बनाते थे
रंग इश्क का चढ़ाते
खुशबु से सजाते थे

उम्र हाथों की थी बढ़ती
बुत और सँवरता रहता
नूर इल्म का आया,
तजुर्बे में हुयी बरकत
फनकारी निखर आयी
जग में बड़ी थी हैरत

खिताब ओ तन्जों से
"शेखों", रिश्ता जो निभाना था
जब नाम बक्शा तुमने बुत को,
कुछ और ही बहाना था

सच उसकी जुबान के,
अब तो काँटों से थे चुबते
ज़िल्लत भरे तंज क्यों
लब से तुम्हारे थे चलते

वहिशियत से कोई कर्जा
क्या तुमको था चुकाना?
फ़रमाँ दिया,
"इस बुत के दिल में,
होगा "हाथों" से आग लगाना
ये मगरूर हैं, बेरहम हैं,
इन्साफ आज बस हम है,
बदी के पुतले को मिटाना होगा,
हमें जीना है, इसे जलना होगा
आखरी जरिया है,
खुदाई को यूँही होगा अब बचाना
इस बुत के दिल में,
होगा "हाथों" से आग लगाना"

शेखों के खौफ से,
वो हाथ काँपते थे,
लबों पे ले मुस्कराहट,
जालिम अपना रसूख नापते थे

खौफ ने हाथों के सब अरमान मिटा डाले
दबी सिसकियों से
हाथों ने, आग में, बुत को कर दिया हवाले

न जाने किस करम से
मौजजा सा हुआ
ख़ाक हुए सब,
इल्म, फन, तजुर्बा
पर मेरा रावन नहीं जला

3 comments:

Rajeysha said...

रावन में बहुत कुछ अच्‍छा था...पर बुरापन अच्‍छाईयों से बहुत ज्‍यादा हो गया था..इसलि‍ये उसे जलना पड़ा.. और हरेक को जलना ही होगा यदि‍ वो बुरेपन से जुड़ गया है

Kapil Sharma said...

Rajey Sha: Kavita padhane ke liye dhanywaad, kuch chizon ko log bewajah hi ravan bana dete hai, ye kavita unhi khwaabon, armaano, insaano ki baat karti hai :)

Sash said...
This comment has been removed by the author.

अंतर्मन