जब भी सुबह
अलसाकर पलकें खोलता हूँ
ए ख्वाब, तुझे
उस करवट लेटा देखकर
बेसबब बेवजा ही
मुस्कुरा देता हूँ
यूँ मिलने जहान की,
दौड़ धुप से
घर से कदम बाहर डालता हूँ
ए ख्वाब, तेरी आँखों
दुआ ए खैरियत देखकर
बेसबब बेवजा ही
मुस्कुरा देता हूँ
के जो कुफ्र सबाब से परे
फिर तूझी में सुकूं तलाशता हूँ
ए ख्वाब तुझे
खुद पर चादर सा ओढ़कर
बेसबब बेवजा ही
मुस्कुरा देता हूँ
10 comments:
खुले बंद आसमान
की परचाइ जो समुन्दर पर गिरे
किनारे पर मै
ए ख्वाब हकीकत में
पैरो के आते जाते कदमो की आहात जान
बेसबब बेवजा ही
मुस्कुरा देता हूँ
बहुत सुहाना सा है यह ख्वाब आपका ।
thanks EYES
Dhanywaad ASHAji
जन्माष्टमी की शुभ कामनाएँ।
कल 23/08/2011 को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
धन्यवाद!
शब्द और भाव का अनूठा मेल किया है आपने इस रचना में,बधाई |
shabdo ka sundar samyojan...
ख्वाब और आपकी रचना बहुत ही सुन्दर....
खूबसूरत ख्वाब
SUNDAR SHABDO KA ISTEMAL KIYA HAI APNE......KHUBSURAT BLOG
यशवंत जी, कविता को अपने ब्लॉग पर जगह देने के लिए धन्यवाद
अमृता जी, कविता पसंद करने के लिए आभार
सागरजी, शुक्रिया
थैंक्स, सुषमाजी
thank you संगीता जी
एना जी, हार्दिक आभार
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