...अब भी उन कुचों से गुजरते हुए
खामोश हो जाती हैं
जुबां सोच की
सारे ख़्याल
थम से जाते हैं
नज़रें उस खिड़की कोचुरा ले जाना चाहती हैं
बीते लम्हें,
सर्द कोहरे की तरह
न जाने कहाँ से
उतर आते हैं
स्लेटी हो चली
दोपहर कुछ
ज्यादा उदास
लगने लगती हैं
आहट क़दमों की
उस रास्ते पर
अजब कशमकश
से गुजरती हैं
...अब भी उन कुचों से गुजरते हुए
2 comments:
सहीं में अजब कशमकश है।
हाँ मनोजजी बहोत बड़ी कशमकश है
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