ना कुफ्र का डर, ना अरमां सबाब का
इक उम्र इंतज़ार की, इक लम्हा आदाब का
बातें सारी नज़रों से, चुप चुप हैं जुबां,
पूछे कोई क्या पूछे, सवाल उनके जवाब का?
ना कुफ्र का डर, ना अरमां सबाब का
आँखें डरी डरी रही हैं सारा दिन,
बहुत देर रहा असर, कल रात के ख्वाब का
ना कुफ्र का डर, ना अरमां सबाब का
किसे करू शिकायत तेरी, मेरा अपना हैं यहाँ कौन?
साकी तेरा, मैकदा तेरा, तेरा प्याला शराब का
ना कुफ्र का डर, ना अरमां सबाब का
ना कुफ्र का डर, ना अरमां सबाब का
Author: Kapil Sharma / Labels: MEआँखों के मौसम का हाल
Author: Kapil Sharma / Labels: MEइक पनाह उस बरगद की,
और इक उम्र की शिकायतें.
हम कल गुजरे फिर उस गली से
कल फिर घण्टों की बातें
वो रूठी, रोई, लड़ी भी मुझसे
दो पल में फिर मान गयी
उठी, यों पल्ला झाड़ा क्षण में,
एक ह्रदय, सौ-सौ आघातें
पूछने लगे हैं लोग अब तो,
नुक्ता तेरी आँखों के मौसम का हाल
सेहरा जैसे तपते पत्थर,
या मुसल सल बरसातें
शौक क्यों ये पाल रखा हैं,
तुमने बाज़ार लगाने का,
बन तमाशबीन, रहते चैन से किनारे,
नुक्ता, तुम भी वाइज़ कहलातें
यूँ धड़कन, धड़कन मरने को,
वो जीने की निशानी कहते है
कसम की रसम जो बाकी ना होती,
ना जीते यूँ, भले ही मर जाते
"सच कहता हूँ, मुझको याद तुम्हारी सताती नहीं"
Author: Kapil Sharma / Labels: MEरंग कुछ ज्यादा फ़ीके लगते हैं
ये ओस सुबह की लुभाती नहीं
मकाँ ऐसा बनाते हैं दिल में लोग कुछ
वो न हो कोई चीज़ भाती नहीं
यूँ तो अपना आस्मां, ढक लेता हैं सर मेरा
तलाशती नज़रें उन्हें फिर भी,
दिल को मेरे कोई और शह ढक पाती नहीं
दो-चार रोज़ यूँ तो अरसा लम्बा नहीं होता,
वाइजों यहाँ
बात सीधी सी हैं, "नुक्ता" नादान को समझ आती नहीं
वक़्त का दरया, मौजों संग किनारे, लेकर लौट जाता हैं
रेत के महल बिखरते हैं लेकिन वो घर लौट के जाती नहीं
लम्हे, पल और घड़ियाँ सारी, सिरहाने शोर मचाती हैं
तंग करने को तुम नहीं हो, नींद मुझे क्यों आती नहीं
"लौट आओ, 'मन्ना", दर ओ दीवार कहते हैं,
"सच कहता हूँ, मुझको याद तुम्हारी सताती नहीं"
सच्चाई जो गैर बर्दाश्त,
Author: Kapil Sharma / Labels: MEसच्चाई जो गैर बर्दाश्त,
फिर सच मुझसे मांगे क्यों?
वक़्त से जीत नहीं होती गर जो
क्यों लड़े, इस संग भागे क्यों?
कदम जो ठिठक थे,
उस मोड़ तुम्हारे
रिश्ते अपाहिज हो गए थे
कोई साथ चले अपने भी,
ये उम्मीद हो आगे क्यों?
जो कहते थे, तुम मैं, मैं तुम
अब वो बचकर चलते हैं
आँखें फेर यूँ महफ़िल बैठे
मैं कौन, तू मेरा कुछ लागे क्यों?
ख्वाब अजीब हैं
Author: Kapil Sharma / Labels: MEरुकी रुकी जमीं,
रुका हुआ अम्बर,
उदास, अकेला
ठहरा ठहरा मंजर
टुटा सा इक
धनुक का कोना
शफक पे बिखरा पड़ा
शाम का सोना
जुदा जुदा से
पल वो सारे
रोते हँसते,
चुप चुप रहते कभी,
कभी बहुत बतियाते
दूर खड़ी वो
सहमी सहमी,
आँखों में लिए,
खौफ, राज़ या
कोई खुश फ़हमी
दुबका कुचला
अहम् मेरा,
बनते बिगड़ते
नातों का फेरा
फ़ैसले हज़ार,
रुके, ठहरे
गूंगा क़ाज़ी,
गवाह बहरे
ये तन्हा सिमटी रात अजीब हैं
इसके दामन के ये ख्वाब अजीब हैं